प्रभु की कार्य-पद्धतियां

 

    भगवान् की 'कृपा' अद्‌भुत और सर्वशक्तिमान् है ।

 

    और भगवान् के काम करने के तरीके आनन्ददायी हास्यरस से भरे हैं...

 

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    हमेशा भगवान् का स्वागत करने के लिए तैयार रहो, 'वे' किसी भी क्षण तुम्हारे यहां आ सकते हैं ।

 

    और अगर कभी 'वे' तुमसे निश्चित मिलन-स्थल पर प्रतीक्षा करवाते हैं तो निश्चय ही यह कोई कारण नहीं है कि तुम स्वयं देर करो ।

२३ सितम्बर, १९५६

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     यह बिलकुल स्पष्ट है कि किसी-न-किसी कारण से-और हो सकता है कि बिना किसी कारण के ही-'परम प्रभु' ने इस बारे में 'अपना' मन बदल लिया हो ।

२५ जनवरी, १९५८

 

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     तुम्हारी श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिए और यह देखने के लिए कि क्या वह बाहरी वस्तु पर इतनी निर्भर है, 'परम प्रभु' ने अपना निर्णय बदल लिया होगा ।

९ फरवरी, १९५८

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     निश्चय ही, और सबकी तरह भगवान् को भी 'अपना' मन बदलने का अधिकार है ।

१९५८

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     अगर हम अपने अन्दर स्थित भगवान् के साथ बातचीत करना चाहें

     तो क्या यह सम्भव है ? अगर है तो किस शर्त पर ?

 

'भगवांन्' बातचीत में रस नहीं लेते ।

 

     क्या कभी भगवान् हमले नाराज होते हैं ? अगर हां तो कब ?

 

जब तुम मान लो कि 'वे' नाराज हैं ।

 

     अगर हम भगवान् के लिए आंसू बहायें तो क्या 'वे' भी कभी हमारे लिए आंसू बहाते हैं ?

 

निश्चय ही 'उनके' अन्दर तुम्हारे लिए गहरी अनुकम्पा है लेकिन 'उनकी' आंखें ऐसी नहीं हैं जो आंसू बहायें ।

२१ सितम्बर, १९६४

 

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    यह हो सकता है कि भगवान् चीजों को उसी तरह नहीं देखते जैसे आदमी देखते हैं ।

 

    'साधना' के लिए एक आकस्मिक अभिव्यक्ति बहुत उपयोगी हो सकती है ।

२२ अगस्त, १९६६

 

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     मनुष्य के विधान के अनुसार अपराधी को दण्ड मिलना चाहिये । लेकिन एक विधान है जो मानव विधान की अपेक्षा अधिक अनिवार्य है । वह है 'भागवत' विधान, अनुकम्पा और दया का विधान ।

 

      इसी विधान के कारण संसार सह पा रहा है और 'सत्य' तथा 'प्रेम' की ओर प्रगति कर रहा है ।

नवम्बर, १९६६

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   माताजी,

 

      क्या भगवान् अन्याय छ दण्ड देते हैं ?  क्या भगवान् के लिए किसी को दण्ड देना सम्भव है ?

 

भगवान् चीजों को उस तरह नहीं देखते जैसे मनुष्य देखते हैं और उन्हें दण्ड देने और पुरस्कार देने की आवश्यकता नहीं होती । प्रत्येक कर्म अपने अन्दर अपना फल और अपना परिणाम लिये रहता है ।

 

     कर्म की प्रकृति के अनुसार वह तुम्हें 'भगवान्' के निकट लाता है या 'उनसे' दूर ले जाता है । और यही परम परिणाम है ।

२५ जुलाई, १९७०

 

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    मनुष्य अपने-आपको भगवान् से अलग कर सकने में सक्षम होते हैं, और बहुधा करते भी हैं लेकिन भगवान् के लिए अपने-आपको मनुष्यों से अलग कर लेना असम्भव है ।

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अगर परम 'चेतना' मनुष्यों की त्रुटियों पर क्रुद्ध होती तो मनुष्यजाति कब की खतम हो गयी होती ।

७ जून, १९७२

 

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      मनुष्यों को शुरू से ही अच्छा क्यों नहीं बनाया गया ?

 

भगवान् ने मनुष्य को दुष्ट नहीं बनाया ।

 

      स्वयं मनुष्य अपने-आपको भगवान् से अलग करके दुष्ट बना लेता है ।

 

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     भगवान् भले ही तुम्हारी ओर झुक आयें परन्तु 'उन्हें ' ठीक तरह

 

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समझने के लिए तुम्हें 'उन' तक उठना होगा ।

 

     भगवान् को समझने के लिए हमारे अन्दर पसन्दें बाकी न रहनी चाहियें ।

 

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भगवान् को समझने के लिए तुम्हें भगवान् बनना चाहिये ।

२४ मई, १९७२

 

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